ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् |
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतस: || 32||
yē tvētadabhyasūyantō nānutiṣṭhanti mē matam ।
sarvajñānavimūḍhāṃstānviddhi naṣṭānachētasaḥ ॥ 32 ॥
परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मतके अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खोको तू सम्पूर्ण ज्ञानोंमें मोहित और नष्ट हुए ही समझ|
On the other hand, O Arjuna, those of poor intelligence that do not follow my teaching are ignorant; regard them as mere fools.
सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि |
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति || 33||
sadṛśaṃ chēṣṭatē svasyāḥ prakṛtērjñānavānapi ।
prakṛtiṃ yānti bhūtāni nigrahaḥ kiṃ kariṣyati ॥ 33 ॥
सभी प्राणी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं अर्थात् अपने स्वभावके परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान् भी अपनी प्रकृतिके अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसीका हठ क्या करेगा ?
All beings, wise or unwise, are forced to act by nature. What can restraint possibly do, O Arjuna?
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ |
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ || 34||
indriyasyēndriyasyārthē rāgadvēṣau vyavasthitau ।
tayōrna vaśamāgachChēttau hyasya paripanthinau ॥ 34 ॥
इन्द्रिय इन्द्रियके अर्थमें अर्थात् प्रत्येक इन्द्रियके विषयमें राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्यको उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये, क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याणमार्गमें विघ्न करनेवाले हैं महान् शत्रु है|
The Divine Lord stated:The enjoyment of sensual objects by their senses (an example of human nature) creates barriers to the path of Bliss and peace if one becomes a victim of attachment to his sesses.
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: || 35||
śrēyānsvadharmō viguṇaḥ paradharmātsvanuṣṭhitāt ।
svadharmē nidhanaṃ śrēyaḥ paradharmō bhayāvahaḥ ॥ 35 ॥
अच्छी प्रकार आचरणमें लाये हुए दूसरेके धर्मसे गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्ममें तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरेका धर्म भयको देनेवाला है|
One’s own duty (Dharma) is more favourable than the well-established duty of others. To even encounter death, while performing one’s own duties (Dharma), is truly divine. However another person’s duty is filles with menace and fear.
अर्जुन उवाच |
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष: |
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित: || 36||
arjuna uvācha ।
atha kēna prayuktōyaṃ pāpaṃ charati pūruṣaḥ ।
anichChannapi vārṣṇēya balādiva niyōjitaḥ ॥ 36 ॥
अर्जुन बोले – हे कृष्ण ! तो फिर यह मनुष्य स्वयं – न चाहता हुआ भी बलात् लगाये हुएकी भाँति किससे प्रेरित होकर पापका आचरण करता है ?
Arjuna asked the Lord: O Lord Krishna, what motivates a person to commit sins that were committed involuntarily or by the force of others?