Shloka 1-5
श्रीभगवानुवाच |इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् |विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् || 1|| Sribhagavan Uvacha।imaṃ vivasvatē yōgaṃ prōktavānahamavyayam ।vivasvānmanavē prāha manurikṣvākavēbravīt ॥ 1 ॥ श्रीभगवान् बोले– मैंने इस अविनाशी योगको सूर्यसे कहा थ; सूर्यने अपने पुत्र वैवस्वत मनुसे कहा और मनुने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकुसे कहा| Lord Krishna continued: I taught this immortal, everlasting “Yoga faction” (Karmayoga) to the […]
Shloka 6-10
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् |प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया || 6|| ajōpi sannavyayātmā bhūtānāmīśvarōpi san ।prakṛtiṃ svāmadhiṣṭhāya sambhavāmyātmamāyayā ॥ 6 ॥ मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ| O Arjuna, although birth and death do not exist for Me, since I […]
Shloka 11-15
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: || 11|| yē yathā māṃ prapadyantē tāṃstathaiva bhajāmyaham ।mama vartmānuvartantē manuṣyāḥ pārtha sarvaśaḥ ॥ 11 ॥ हे अर्जुन ! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं| […]
Shloka16-20
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता: |तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ||16|| kiṃ karma kimakarmēti kavayōpyatra mōhitāḥ ।tattē karma pravakṣyāmi yajjñātvā mōkṣyasēśubhāt ॥16॥ कर्म क्या है ? और अकर्म क्या है ? – इस प्रकार इसका निर्णय करनेमें बुद्धिमान् पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। इसलिये वह कर्मतत्त्व मैं तुझे भलीभाँति समझाकर कहूँगा, जिसे जानकर तू […]
Shloka21-25
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह: |शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ||21|| nirāśīryatachittātmā tyaktasarvaparigrahaḥ ।śārīraṃ kēvalaṃ karma kurvannāpnōti kilbiṣam ॥21॥ जिसका अन्तःकरण और इन्द्रियोंके सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगोंकी सामग्रीका परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पापोंको नहीं प्राप्त होता| That person, O Arjuna, who has conquered his […]
Shloka26-31
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति |शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ||26|| śrōtrādīnīndriyāṇyanyē saṃyamāgniṣu juhvati ।śabdādīnviṣayānanya indriyāgniṣu juhvati ॥26॥ अन्य योगीजन श्रोत्र आदि समस्त इन्द्रियोंको संयमरूप अग्नियोंमें हवन किया करते हैं और दूसरे योगीलोग शब्दादि समस्त विषयोंको इन्द्रियरूप अग्नियोंमें हवन किया करते हैं| Some offer, in the fire of self-control, one of their senses such as their hearing. (This signifies […]
Shloka32-36
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे |कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ||32|| ēvaṃ bahuvidhā yajñā vitatā brahmaṇō mukhē ।karmajānviddhi tānsarvānēvaṃ jñātvā vimōkṣyasē ॥32॥ इसी प्रकार और भी बहुत तरहके यज्ञ वेदकी वाणीमें विस्तारसे कहे गये हैं। उन सबको तू मन, इन्द्रिय और शरीरकी क्रियाद्वारा सम्पन्न होनेवाले जान, इस प्रकार तत्त्वसे जानकर उनके अनुष्ठानद्वारा तू कर्मबन्धनसे सर्वथा […]
Shloka37-42
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन |ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ||37|| yathaidhāṃsi samiddhōgnirbhasmasātkurutērjuna ।jñānāgniḥ sarvakarmāṇi bhasmasātkurutē tathā ॥37॥ क्योंकि हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनोंको भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मोंको भस्ममय कर देता है| O Arjuna, as the burnig fire reduces fuel to ashes, in this same way, Karma (attached Karma binding a […]