Karm Yog

Shloka 1-5

अर्जुन उवाच |ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन |तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव || 1 || arjuna uvācha ।jyāyasī chētkarmaṇastē matā buddhirjanārdana ।tatkiṃ karmaṇi ghōrē māṃ niyōjayasi kēśava ॥ 1 ॥ अर्जुन बोले– हे जनार्दन ! यदि आपको कर्मकी अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव ! मुझे भयंकर कर्ममें क्यों लगाते हैं ? […]

Shloka 6-10

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् |इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते || 6|| karmēndriyāṇi saṃyamya ya āstē manasā smaran ।indriyārthānvimūḍhātmā mithyāchāraḥ sa uchyatē ॥ 6 ॥ जो मूढ़बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियोंको हठपूर्वक ऊपरसे रोककर मनसे उन इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है| O Arjuna, those who have learned to […]

Shloka 11-16

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व: |परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ || 11|| dēvānbhāvayatānēna tē dēvā bhāvayantu vaḥ ।parasparaṃ bhāvayantaḥ śrēyaḥ paramavāpsyatha ॥ 11 ॥ तुमलोग इस यज्ञके द्वारा देवताओंको उन्नत करो और वे देवता तुमलोगोंको उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थभावसे एक-दूसरेको उन्नत करते हुए तुमलोग परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे| The Lord said unto Arjuna: The […]

Shloka 17-21

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव: |आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते || 17|| yastvātmaratirēva syādātmatṛptaścha mānavaḥ ।ātmanyēva cha santuṣṭastasya kāryaṃ na vidyatē ॥ 17 ॥ परन्तु जो मनुष्य आत्मामें ही रमण करनेवाला और आत्मामें ही तृप्त तथा आत्मामें ही सन्तुष्ट हो, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है| He, O Arjuna, who is satisfied and content in himself, […]

Shloka 22-26

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन |नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि || 22|| na mē pārthāsti kartavyaṃ triṣu lōkēṣu kiñchana ।nānavāptamavāptavyaṃ varta ēva cha karmaṇi ॥ 22 ॥ हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्ममें ही […]

Shloka 27-31

प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश: |अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते || 27|| prakṛtēḥ kriyamāṇāni guṇaiḥ karmāṇi sarvaśaḥ ।ahaṅkāravimūḍhātmā kartāhamiti manyatē ॥ 27 ॥ वास्तवमें सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिके गुणोंद्वारा किये जाते हैं तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकारसे मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी मैं कर्ता हूँ’ ऐसा मानता है| The Blessed Lord Krishna spoke: O Arjuna, […]

Shloka 32-36

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् |सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतस: || 32|| yē tvētadabhyasūyantō nānutiṣṭhanti mē matam ।sarvajñānavimūḍhāṃstānviddhi naṣṭānachētasaḥ ॥ 32 ॥ परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मतके अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खोको तू सम्पूर्ण ज्ञानोंमें मोहित और नष्ट हुए ही समझ| On the other hand, O Arjuna, those of poor intelligence that […]

Shloka 37-43

श्रीभगवानुवाच |काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव: ||महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् || 37|| śrībhagavānuvācha ।kāma ēṣa krōdha ēṣa rajōguṇasamudbhavaḥ ।mahāśanō mahāpāpmā viddhyēnamiha vairiṇam ॥ 37 ॥ श्रीभगवान् बोले– रजोगुणसे उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खानेवाला अर्थात् भोगोंसे कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषयमें वैरी जान| The […]

Product added to cart