दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह: |
वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते || 56||
duḥkhēṣvanudvignamanāḥ sukhēṣu vigataspṛhaḥ ।
vītarāgabhayakrōdhaḥ sthitadhīrmuniruchyatē ॥ 56 ॥
दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है|
He whose mind is unaffected by misery or pleasure and is free from all bonds and attachments, fear and anger, is man, of steady wisdom and decisive intellect.
य: सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् |
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता || 57||
yaḥ sarvatrānabhisnēhastattatprāpya śubhāśubham ।
nābhinandati na dvēṣṭi tasya prajñā pratiṣṭhitā ॥ 57 ॥
जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है
A man has a decisive intellect, who is no longer attached to anything, shoeing pleasure if something pleasan happens and displeasure if something unpleasant occurs.|
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वश: |
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता || 58||
yadā saṃharatē chāyaṃ kūrmōṅgānīva sarvaśaḥ ।
indriyāṇīndriyārthēbhyastasya prajñā pratiṣṭhitā ॥ 58 ॥
और कछुवा सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए)
Just as a tortoise withdraws or retreats its limbs into its shell, a person with a firm mind and decisive intellect can withdraw his senses from sensual objects.
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन: |
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते || 59||
viṣayā vinivartantē nirāhārasya dēhinaḥ ।
rasavarjaṃ rasōpyasya paraṃ dṛṣṭvā nivartatē ॥ 59 ॥
इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है|
One who does not use his senses for the enjoyment of sensual objects can overcome and rise above sensual objects. However, he is not able to leave off the attachment to his senses. One who realizes God or the Supreme, gers rid of attachments to the senses as well.
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित: |
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन: || 60||
yatatō hyapi kauntēya puruṣasya vipaśchitaḥ ।
indriyāṇi pramāthīni haranti prasabhaṃ manaḥ ॥ 60 ॥
हे अर्जुन! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती हैं|
The Blessed Lord said: Even those who are wise and are striving to achieve spiritual happiness and freedom are carried away violently or with great force by their excited senses.