न चैतद्विद्म: कतरन्नो गरीयो
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयु: |
यानेव हत्वा न जिजीविषाम
स्तेऽवस्थिता: प्रमुखे धार्तराष्ट्रा: ||6||
na chaitadvidmaḥ katarannō garīyō yadvā jayēma yadi vā nō jayēyuḥ।
yānēva hatvā na jijīviṣāmastēvasthitāḥ pramukhē dhārtarāṣṭrāḥ ॥6॥
हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिये युद्ध करना और न करना—इन दोनोंमेंसे कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे । और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्रके पुत्र हमारे मुकाबलेमें खड़े हैं|
The sons of DHRTARASHTA stand here before us as our opponents and enemies. It is difficult to say which is better: whether they should destroy us or whether we should conquer the. If we choose to slay them, how can we possibly care to live on ?
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव:
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता: |
यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ||7||
kārpaṇyadōṣōpahatasvabhāvaḥ pṛchChāmi tvāṃ dharmasaṃmūḍhachētāḥ।
yachChrēyaḥ syānniśchitaṃ brūhi tanmē śiṣyastēhaṃ śādhi māṃ tvāṃ prapannam ॥7॥
इसलिये कायरतारूप दोषसे उपहत हुए स्वभाववाला तथा धर्मके विषयमें मोहितचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिये कहिये; क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिये आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिये|
Please, Dear Lord, I am your disciple, kindly guide and instruct me, for I have taken refuge and shelter in you.
I am confused as to my duties and what is good for me. I beg you to give me knowledge, wisdom and a clear, logical mind.
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्
यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् |
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥8॥
na hi prapaśyāmi mamāpanudyādyachChōkamuchChōṣaṇamindriyāṇām।
avāpya bhūmāvasapatnamṛddhaṃ rājyaṃ surāṇāmapi chādhipatyam ॥8॥
क्योंकि भूमिमें निष्कण्टक, धन-धान्यसम्पन्न राज्यको और देवताओंके स्वामीपनेको प्राप्त होकर भी मैं उस उपायको नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियोंके सुखानेवाले शोकको दूर कर सके|
I cannot find any cure for the great great grief I suffer, O KRISHNA, even though by winning this war, I would achieve great power and rule over the earth and the heavens.
सञ्जय उवाच |
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेश: परन्तप |
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥9॥
Sanjaya Uvacha |
ēvamuktvā hṛṣīkēśaṃ guḍākēśaḥ parantapa ।
na yōtsya iti gōvindamuktvā tūṣṇīṃ babhūva ha ॥9॥
संजय बोले – हे राजन् ! निद्राको जीतने – अर्जुन अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराजके प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्रीगोविन्दभगवान्से ‘युद्ध नहीं करूँगा’ यह स्पष्ट कहकर चुप हो गये|
Sanjaya said: Dear Dhrtarashtra, my great king, after addressing HRISHIKESHA (Lord of the senses). GUDUKESHA (conqueror of sleep), and PARAMTAPAH (destroyer of all enemies), ARJUN spoke clearly to the great Lord KRISHNA in a determined and assured voice that he would not fight, and then became silent.
तमुवाच हृषीकेश: प्रहसन्निव भारत |
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वच: ॥10॥
tamuvācha hṛṣīkēśaḥ prahasanniva bhārata ।
sēnayōrubhayōrmadhyē viṣīdantamidaṃ vachaḥ ॥10॥
हे भरतवंशी धृतराष्ट्र ! अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों सेनाओंके बीचमें शोक करते हुए उस अर्जुनको हँसते हुए से यह वचन बोले|
“O ARJUNA,” HRISHIKESA spoke smilingly, as ARJUNA stood between the two armies: