Shloka 1-5
श्रीभगवानुवाच |अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य: |स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय: || 1|| Sri Bhagavan Uvacha ।anāśritaḥ karmaphalaṃ kāryaṃ karma karōti yaḥ ।sa saṃnyāsī cha yōgī cha na niragnirna chākriyaḥ ॥ 1 ॥ श्रीभगवान् बोले—जो पुरुष कर्मफलका आश्रय न लेकर करनेयोग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है और केवल […]
Shloka 6-10
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित: |अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्ते तात्मैव शत्रुवत् || 6|| bandhurātmātmanastasya yēnātmaivātmanā jitaḥ ।anātmanastu śatrutvē vartētātmaiva śatruvat ॥ 6 ॥ जिस जीवात्माद्वारा मन और इन्द्रियोंसहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्माका तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियोंसहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिये वह आप ही शत्रुके सदृश […]
Shloka 11-15
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन: |नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् || 11|| śuchau dēśē pratiṣṭhāpya sthiramāsanamātmanaḥ ।nātyuchChritaṃ nātinīchaṃ chailājinakuśōttaram ॥ 11 ॥ शुद्ध भूमिमें, जिसके ऊपर क्रमश: कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न बहुत ऊँचा है और न बहुत नीचा, ऐसे अपने आसनको स्थिर स्थापन करके For proper meditation, the Yogi should seek a clear spot, […]
Shloka 16-20
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नत: |न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन || 16|| nātyaśnatastu yōgōsti na chaikāntamanaśnataḥ ।na chātisvapnaśīlasya jāgratō naiva chārjuna ॥ 16 ॥ हे अर्जुन! यह योग न तो बहुत खानेवालेका, न बिलकुल न खानेवालेका, न बहुत शयन करनेके स्वभाववालेका और न सदा जागनेवालेका ही सिद्ध होता है| There must be a constant balance […]
Shloka 21-25
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् |वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वत: || 21|| sukhamātyantikaṃ yattadbuddhigrāhyamatīndriyam ।vētti yatra na chaivāyaṃ sthitaśchalati tattvataḥ ॥ 21 ॥ इन्द्रियोंसे अतीत, केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिद्वारा ग्रहण करनेयोग्य जो अनन्त आनन्द है; उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है और जिस अवस्थामें स्थित यह योगी परमात्माके स्वरूपसे विचलित होता ही नहीं | O […]
Shloka 26-30
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् |ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् || 26|| yatō yatō niścharati manaśchañchalamasthiram ।tatastatō niyamyaitadātmanyēva vaśaṃ nayēt ॥ 26 ॥ यह स्थिर न रहनेवाला और चञ्चल मन जिस जिस शब्दादि विषयके निमित्तसे संसारमें विचरता है, उस उस विषयसे रोककर यानी हटाकर इसे बार बार परमात्मामें ही निरुद्ध करे| The unsteady, wandering and constantly distracted […]
Shloka 31-35
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित: |सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते || 31|| sarvabhūtasthitaṃ yō māṃ bhajatyēkatvamāsthitaḥ ।sarvathā vartamānōpi sa yōgī mayi vartatē ॥ 31 ॥ जो पुरुष एकीभावमें स्थित होकर सम्पूर्ण भूतोंमें आत्मरूपसे स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेवको भजता है, वह योगी सब प्रकारसे बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है| The Lord proclaimed: O Arjuna, […]
Shloka 36-40
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मति: |वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायत: || 36|| asaṃyatātmanā yōgō duṣprāpa iti mē matiḥ ।vaśyātmanā tu yatatā śakyōvāptumupāyataḥ ॥ 36 ॥ जिसका मन वशमें किया हुआ नहीं है, ऐसे पुरुषद्वारा योग दुष्प्राप्य है और वशमें किये हुए मनवाले प्रयत्नशील पुरुषद्वारा साधनसे उसका प्राप्त होना सहज है – यह मेरा मत है| […]
Shloka 41-47
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वती: समा: |शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते || 41|| prāpya puṇyakṛtāṃ lōkānuṣitvā śāśvatīḥ samāḥ ।śuchīnāṃ śrīmatāṃ gēhē yōgabhraṣṭōbhijāyatē ॥ 41 ॥ योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानोंके लोकोंको अर्थात् स्वर्गादि उत्तम लोकोंको प्राप्त होकर, उनमें बहुत वर्षोंतक निवास करके फिर शुद्ध आचरणवाले श्रीमान् पुरुषोंके घरमें जन्म लेता है| The unsuccessful person in Yoga, Dear Arjuna, achieves […]