Chapter 9 - Raj Vidhya Raj Guhya Yog - TATVA GYAAN

Shloka 1-5

श्रीभगवानुवाच |इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे |ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् || 1|| Sri Bhagavan Uvacha ।idaṃ tu tē guhyatamaṃ pravakṣyāmyanasūyavē ।jñānaṃ vijñānasahitaṃ yajjñātvā mōkṣyasēśubhāt ॥ 1 ॥ श्रीभगवान् बोले- तुझ दोषदृष्टिरहित भक्तके लिये इस परम गोपनीय विज्ञानसहित ज्ञानको पुनः भलीभाँति कहूँगा, जिसको जानकर तू दुःखरूप संसारसे मुक्त हो जायगा| Lord Krishna continued: Dear Arjuna, I […]

Shloka 6-10

यथाकाशस्थितो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान् |तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय || 6|| yathākāśasthitō nityaṃ vāyuḥ sarvatragō mahān ।tathā sarvāṇi bhūtāni matsthānītyupadhāraya ॥ 6 ॥ जैसे आकाशसे उत्पन्न सर्वत्र विचरनेवाला महान् वायु सदा आकाशमें ही स्थित है, वैसे ही मेरे संकल्पद्वारा उत्पन्न होनेसे सम्पूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं, ऐसा जान| Arjuna, you must clearly understand that just […]

Shloka 11-15

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् |परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् || 11|| avajānanti māṃ mūḍhā mānuṣīṃ tanumāśritam ।paraṃ bhāvamajānantō mama bhūtamahēśvaram ॥ 11 ॥ मेरे परमभावको न जाननेवाले मूढलोग मनुष्यका शरीर धारण करनेवाले मुझ सम्पूर्ण भूतोंके महान् ईश्वरको तुच्छ समझते हैं अर्थात् अपनी योगमायासे संसारके उद्धार के लिये मनुष्यरूपमें विचरते हुए मुझ परमेश्वरको साधारण मनुष्य मानते […]

Shloka 16-20

अहं क्रतुरहं यज्ञ: स्वधाहमहमौषधम् |मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् || 16|| ahaṃ kraturahaṃ yajñaḥ svadhāhamahamauṣadham ।mantrōhamahamēvājyamahamagnirahaṃ hutam ॥ 16 ॥ क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, ओषधि मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूँ| Arjuna, you must understand that I am everything in this […]

Shloka 21-25

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालंक्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति |एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्नागतागतं कामकामा लभन्ते || 21|| tē taṃ bhuktvā svargalōkaṃ viśālaṃ kṣīṇē puṇyē martyalōkaṃ viśanti।ēvaṃ trayīdharmamanuprapannā gatāgataṃ kāmakāmā labhantē ॥ 21 ॥ वे उस विशाल स्वर्गलोकको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकको प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्गके साधनरूप तीनों वेदोंमें कहे हुए सकामकर्मका आश्रय लेनेवाले और भोगोंकी […]

Shloka 26-30

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति |तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन: || 26|| patraṃ puṣpaṃ phalaṃ tōyaṃ yō mē bhaktyā prayachChati ।tadahaṃ bhaktyupahṛtamaśnāmi prayatātmanaḥ ॥ 26 ॥ जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेमसे पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्तका प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र पुष्पादि मैं सगुणरूपसे […]

Shloka 31-34

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति |कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति || 31|| kṣipraṃ bhavati dharmātmā śaśvachChāntiṃ nigachChati ।kauntēya pratijānīhi na mē bhaktaḥ praṇaśyati ॥ 31 ॥ वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शान्तिको प्राप्त होता है । हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता| […]

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