Shloka 1-6
श्रीभगवानुवाच |मय्यासक्तमना: पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रय: |असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु || 1|| Sri Bhagavan Uvacha ।mayyāsaktamanāḥ pārtha yōgaṃ yuñjanmadāśrayaḥ ।asaṃśayaṃ samagraṃ māṃ yathā jñāsyasi tachChṛṇu ॥ 1 ॥ श्रीभगवान् बोले-हे पार्थ ! अनन्यप्रेमसे मुझमें आसक्तचित्त तथा अनन्यभावसे मेरे परायण होकर योगमें लगा हुआ तू जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणोंसे युक्त, सबके […]
Shloka 7-11
मत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय |मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव || 7|| mattaḥ parataraṃ nānyatkiñchidasti dhanañjaya ।mayi sarvamidaṃ prōtaṃ sūtrē maṇigaṇā iva ॥ 7 ॥ हे धनञ्जय! मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् सूत्रमें सूत्रके मनियोंके सदृश मुझमें गुँथा हुआ है| Arjuna, there is in reality absolutely nothing else […]
Shloka 12-16
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये |मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि || 12|| yē chaiva sāttvikā bhāvā rājasāstāmasāścha yē ।matta ēvēti tānviddhi na tvahaṃ tēṣu tē mayi ॥ 12 ॥ और भी जो सत्त्वगुणसे उत्पन्न होनेवाले भाव हैं और जो रजोगुणसे तथा तमोगुणसे होनेवाले भाव हैं, उन सबको तू ‘मुझसे ही होनेवाले […]
Shloka 17-21
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते |प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय: || 17|| tēṣāṃ jñānī nityayukta ēkabhaktirviśiṣyatē ।priyō hi jñāninōtyarthamahaṃ sa cha mama priyaḥ ॥ 17 ॥ उनमें नित्य मुझमें एकीभावसे स्थित अनन्य प्रेमभक्तिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है, क्योंकि मुझको तत्त्वसे जाननेवाले ज्ञानीको मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है| […]
Shloka 22-26
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते |लभते च तत: कामान्मयैव विहितान्हि तान् || 22|| sa tayā śraddhayā yuktastasyārādhanamīhatē ।labhatē cha tataḥ kāmānmayaiva vihitānhi tān ॥ 22 ॥ वह पुरुष उस श्रद्धासे युक्त होकर उस देवताका पूजन करता है और उस देवतासे मेरे द्वारा ही विधान किये हुए उन इच्छित भोगोंको निःसन्देह प्राप्त करता है| Thus, once these […]
Shloka 27-30
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत |सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप || 27|| ichChādvēṣasamutthēna dvandvamōhēna bhārata ।sarvabhūtāni saṃmōhaṃ sargē yānti parantapa ॥ 27 ॥ हे भरतवंशी अर्जुन ! संसारमें इच्छा और द्वेषसे उत्पन्न सुख-दुःखादि द्वन्द्वरूप मोहसे सम्पूर्ण प्राणी अत्यन्त अज्ञताको प्राप्त हो रहे हैं| Arjuna, in this world, most beings are confused and deluded by the doubts created […]