Chapter 18 - Moksha Sanyas Yog - TATVA GYAAN

Shloka 1-5

अर्जुन उवाच |सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् |त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन || 1|| Arjuna Uvacha ।saṃnyāsasya mahābāhō tattvamichChāmi vēditum ।tyāgasya cha hṛṣīkēśa pṛthakkēśiniṣūdana ॥ 1 ॥ अर्जुन बोले ——हे महाबाहो ! हे अन्तर्यामिन् ! हे वासुदेव ! मैं संन्यास और त्याग के तत्व को पृथक्-पृथक् जानना चाहता हूँ | Arjuna asked the Almighty Krishna: Please explain to me, Dear […]

Shloka 6-10

एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च |कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् || 6|| ētānyapi tu karmāṇi saṅgaṃ tyaktvā phalāni cha ।kartavyānīti mē pārtha niśchitaṃ matamuttamam ॥ 6 ॥ इसलिये हे पार्थ ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना […]

Shloka 11-15

न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषत: |यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते || 11|| na hi dēhabhṛtā śakyaṃ tyaktuṃ karmāṇyaśēṣataḥ ।yastu karmaphalatyāgī sa tyāgītyabhidhīyatē ॥ 11 ॥ क्योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्य के द्वारा सम्पूर्णता से सब कर्मों का त्याग किया जाना शक्य नहीं है ; इसलिय जो कर्म फल का त्यागी है, वही त्यागी है — […]

Shloka 16-20

तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु य: |पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मति: || 16|| tatraivaṃ sati kartāramātmānaṃ kēvalaṃ tu yaḥ ।paśyatyakṛtabuddhitvānna sa paśyati durmatiḥ ॥ 16 ॥ परन्तु ऐसा होने पर भी जो मनुष्य अशुद्भ बुद्भि होने के कारण उस विषय में यानि कर्मों के होने में केवल शुद्भ स्वरूप आत्मा को कर्ता समझता है, वह मलिन […]

Shloka 21-25

पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान् |वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् || 21|| pṛthaktvēna tu yajjñānaṃ nānābhāvānpṛthagvidhān ।vētti sarvēṣu bhūtēṣu tajjñānaṃ viddhi rājasam ॥ 21 ॥ किंतु जो ज्ञान अर्थात् जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग जानता है, उस ज्ञान को तू राजस जान । However, Partha, […]

Shloka 26-30

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित: |सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते || 26|| mukta-saṅgo ‘nahaṁ-vādī dhṛity-utsāha-samanvitaḥsiddhy-asiddhyor nirvikāraḥ kartā sāttvika uchyate|| 26|| जो कर्ता सड्गरहित, अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष-शोकादि विकारों से रहित है —- वह सात्विक कहा जाता है । A man who is […]

Shloka 31-35

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च |अयथावत्प्रजानाति बुद्धि: सा पार्थ राजसी || 31|| yayā dharmamadharmaṃ cha kāryaṃ chākāryamēva cha ।ayathāvatprajānāti buddhiḥ sā pārtha rājasī ॥ 31 ॥ हे पार्थ ! मनुष्य जिस बुद्भि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता, वह बुद्भि राजसी है । The wisdom […]

Shloka 36-41

सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ |अभ्यासाद्रमते यत्र दु:खान्तं च निगच्छति || 36|| sukhaṃ tvidānīṃ trividhaṃ śṛṇu mē bharatarṣabha ।abhyāsādramatē yatra duḥkhāntaṃ cha nigachChati ॥ 36 ॥ यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् |तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् || 37|| yattadagrē viṣamiva pariṇāmēmṛtōpamam ।tatsukhaṃ sāttvikaṃ prōktamātmabuddhiprasādajam ॥ 37 ॥ हे भरत श्रेष्ठ ! अब तीन प्रकार के सुख को भी […]

Shloka 42-46

शमो दमस्तप: शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च |ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् || 42|| śamō damastapaḥ śauchaṃ kṣāntirārjavamēva cha ।jñānaṃ vijñānamāstikyaṃ brahmakarma svabhāvajam ॥ 42 ॥ अन्त:करण का निग्रह करना, इन्द्रियों का दमन करना ; धर्म पालन के लिये कष्ट सहना ; बाहर-भीतर से शुद्ध रहना ; दूसरों के अपराधों को क्षमा करना ; मन, इन्द्रिय और शरीर […]

Shloka 47-51

श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् || 47|| śrēyānsvadharmō viguṇaḥ paradharmōtsvanuṣṭhitāt ।svabhāvaniyataṃ karma kurvannāpnōti kilbiṣam ॥ 47 ॥ अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है ;क्योंकि स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्म रूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता । O Arjuna, […]

Shloka 52-56

विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस: |ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रित: || 52|| viviktasēvī laghvāśī yatavākkāyamānasaḥ ।dhyānayōgaparō nityaṃ vairāgyaṃ samupāśritaḥ ॥ 52 ॥ सात्त्विक धारण शक्त्ति के द्वारा अन्त:करण और इन्द्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला, राग-द्बेष को सर्वथा नष्ट करके भली-भाँति दृढवैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहंकार, …He who […]

Shloka 57-61

चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्पर: |बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्त: सततं भव || 57|| chētasā sarvakarmāṇi mayi saṃnyasya matparaḥ ।buddhiyōgamupāśritya machchittaḥ satataṃ bhava ॥ 57 ॥ सब कर्मों को मन से मुझ में अर्पण करके तथा सम बुद्भि रूप योग को अवलम्बन करके मेरे परायण और निरन्तर मुझ में चित्त वाला हो । O Arjuna, if one truly […]

Shloka 62-66

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत |तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् || 62|| tamēva śaraṇaṃ gachCha sarvabhāvēna bhārata ।tatprasādātparāṃ śāntiṃ sthānaṃ prāpsyasi śāśvatam ॥ 62 ॥ हे भारत ! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा । उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शान्ति को तथा सनातन परम धाम को […]

Shloka 67-71

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन |न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति || 67|| idaṃ tē nātapaskāya nābhaktāya kadāchana ।na chāśuśrūṣavē vāchyaṃ na cha māṃ yōbhyasūyati ॥ 67 ॥ तुझे यह गीता रूप रहस्य मय उपदेश किसी भी काल में न तो तप रहित मनुष्य से कहना चाहिये, न भक्त्ति रहित से और न बिना […]

Shloka 72-78

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा |कच्चिदज्ञानसम्मोह: प्रनष्टस्ते धनञ्जय || 72|| kachchidētachChrutaṃ pārtha tvayaikāgrēṇa chētasā ।kachchidajñānasaṃmōhaḥ pranaṣṭastē dhanañjaya ॥ 72 ॥ हे पार्थ ! क्या इस ( गीता शास्त्र ) को तूने एकाग्रचित से श्रवण किया ? और हे धनंजय ! क्या तेरा अज्ञान जनित मोह नष्ट हो गया । Have you heard these words of wisdom […]

Product added to cart