Chapter 13 - Kshetra Kshetrajna Vibhag Yog  - TATVA GYAAN

Shloka 1-5

श्रीभगवानुवाच |इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते |एतद्यो वेत्ति तं प्राहु: क्षेत्रज्ञ इति तद्विद: || 1|| Shri Bhagavan Uvachaidaṁ śharīraṁ kaunteya kṣhetram ity abhidhīyateetad yo vetti taṁ prāhuḥ kṣhetra-jña iti tad-vidaḥ|| 1|| श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन ! यह शरीर ‘क्षेत्र १ इस नामसे कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसको ‘क्षेत्रज्ञ’ इस नामसे उनके तत्त्वको जाननेवाले […]

Shloka 6-10

इच्छा द्वेष: सुखं दु:खं सङ्घातश्चेतना धृति: |एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् || 6 || ichchhā dveṣhaḥ sukhaṁ duḥkhaṁ saṅghātaśh chetanā dhṛitiḥetat kṣhetraṁ samāsena sa-vikāram udāhṛitam|| 6 || तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल देहका पिण्ड चेतना’ और धृति९— इस प्रकार विकारों के सहित यह क्षेत्र संक्षेपमें कहा गया| Desire, hatred, pleasure, pain, the body, intelligence, firmness; these […]

Shloka 11-15

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम् |एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा || 11|| adhyātma-jñāna-nityatvaṁ tattva-jñānārtha-darśhanametaj jñānam iti proktam ajñānaṁ yad ato ’nyathā|| 11|| अध्यात्मज्ञानमें नित्यस्थिति और तत्त्वज्ञान के अर्थरूप परमात्माको ही देखना – यह सब ज्ञान’ है; और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है – ऐसा – कहा है| Constant awareness of the Self (self-knowledge),perception of the end of true […]

Shloka 16-20

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् |भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च || 16|| avibhaktaṁ cha bhūteṣhu vibhaktam iva cha sthitambhūta-bhartṛi cha taj jñeyaṁ grasiṣhṇu prabhaviṣhṇu cha|| 16|| वह परमात्मा विभागरहित एक रूपसे आकाशके सदृश परिपूर्ण होनेपर भी चराचर सम्पूर्ण भूतोंमें विभक्त-सा स्थित प्रतीत होता है तथा वह जाननेयोग्य परमात्मा विष्णुरूपसे भूतोंको धारण पोषण करनेवाला […]

Shloka 21-25

पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुङक्ते प्रकृतिजान्गुणान् |कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु || 21|| puruṣhaḥ prakṛiti-stho hi bhuṅkte prakṛiti-jān guṇānkāraṇaṁ guṇa-saṅgo ’sya sad-asad-yoni-janmasu|| 21|| भावार्थ : कार्य (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध -इनका नाम ‘कार्य’ है) और करण (बुद्धि, अहंकार और मन तथा श्रोत्र, त्वचा, रसना, नेत्र और घ्राण एवं वाक्‌, हस्त, […]

Shloka 26-30

यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्वं स्थावरजङ्गमम् |क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ || 26|| yāvat sañjāyate kiñchit sattvaṁ sthāvara-jaṅgamamkṣhetra-kṣhetrajña-sanyogāt tad viddhi bharatarṣhabha|| 26|| हे अर्जुन ! यावन्मात्र जितने भी स्थावर-जंगम प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सबको तू क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न जान| Whatever is born, unmoving or moving, O Arjuna, know it to be from the union of the […]

Shloka 31-34

अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्यय: |शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते || 31|| anāditvān nirguṇatvāt paramātmāyam avyayaḥśharīra-stho ’pi kaunteya na karoti na lipyate|| 31|| हे अर्जुन ! अनादि होने से और निर्गुण होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित होने पर भी वास्तव में न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है | The Supreme Self […]

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